लाज शर्म और हया,
बेचकर कहा यह दौर है नया।
बेचकर इनको वो कहां गया,
लाज शर्म और हया।
अपनी संस्कृति को छोड़,
जिसको तुम कहते हो नया।
बदन दिखाने को शान समझे,
क्या सचमुच बेच दी हया।
आधे बदन पर कपड़ा लपेट,
तुम कह रहे हो फ़ैशन।
दुसरो की संस्कृति अपना,
भूल गये अपना ट्रेडिशन।
सोच को छोटी कहकर,
खुद कितने छोटे हो गए।
बेचकर अच्छी सेहत को,
बुद्धि के साथ मोटे हो गए।
पहनी है जो तुमने बेशर्मी का लिबास,
हो गया तंग आ गई तुमको लाज।
शर्म, हया और लाज,
अपनी संस्कृति में रखो विश्वास।
🙏 *अशवनी साहू* 🙏
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