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शुशांत को समर्पित

ऐ मन था बावरा मंजिल,
पाने को बेक़रार रहता था।
ऐसी कौन सी चीज चाहत थी,
कि मौत को गले लगा बैठे।


सबको पता है बेवजह कुछ
भी नही होता साहब,
बारिश होने के लिए जमीं को
तपना पड़ता है।
तेरी ऐसी कौन सी चाहत थी
कि मन बावरे मौत को गले
लगा बैठे।

बचपन था तो खेलकूद को
उतावलापन रहता था,
स्कूल में अच्छे परिणाम
के लिये  पागल रहता था।
कालेज गए पढ़ाई छोड़
सुंदरियों पीछे दीवाना
रहता था।
ऐसी कौन सी चाहत थी,
कि मन बावरे मौत को गले
लगा बैठे।

पुरी मेहनत के बाद
अभी तो किस्मत ने साथ
देना शुरू किया था,
बहुत कुछ पाना अभी बाकी था,
कुछ पा लिया था।
मंजिल से दुर ही सही
पर उसको आंखों से देख लिया था,
ऐसी कौन सी चाहत थी,
कि मन बावरे मौत को गले
लगा बैठे।

चमकने लगे थे आसमां में,
सितारों की तरह,
क्यो बुझने दिया तूने अपने,
लौ को दीप जैसे।
जगह बनाकर करोड़ो दिल मे,
राजा बन राज करने लगे थे।
तेरी चमक को सिर्फ देखने के,
खातिर करोड़ो आंखे जगे थे।
ऐसी कौन सी चाहत थी,
कि मन बावरे मौत को गले
लगा बैठे।

जवा दिलो की धड़कन थे,
सुंदरियों के बने तुम तड़पन थे।
हर उम्र के लोगो मे तेरा असर था,
पुरा हो रहा था तेरा सपना,
बाकी और क्या तेरा कसर था।
इस हरकत को मैं क्या कहूं,
बुश्दीली तेरी या नादानी।
देखने, कहने सुनने को,
तेरी हजारो है कहानी।
ऐसी कौन सी चाहत थी,
कि मन बावरे मौत को गले
लगा बैठे।

तुमको खोने का कितना दुख है
ये बताऊं कैसे,
चले गये हम सबको छोड़ दिल
चीर दिखाऊँ कैसे।
तुम्हे खोने से आंख भर आईं,
रो रहा है ये जग सारा,
तुम कुछ नही थे मान लिया,
पर था तू हमारे आंखों का तारा।
तेरी ऐसी कौन सी चाहत थी
कि मन बावरे मौत को गले
लगा बैठे।
*अशवनी साहू*


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